Manifesto
चुनाव घोषणापत्र या छलावा:
चुनाव आगमन पर विभिन्न राजनीतिक पार्टियां राष्ट्र, राज्य स्तर की व क्षेत्र में व्याप्त समस्याओं, मांगों और जनता की जरूरतों को आधार बना, चुने जाने पर नीतियों के रूप लागू करने के लिए अपना एक लिखित घोषणापत्र तैयार करती है। जिसे आजकल पार्टी नेता संकल्पपत्र, सपथपत्र और वचनपत्र के नाम से भी संबोधित करने लगे है। इसके पीछे घोषणापत्र में शामिल लिखित वादों को पूरा न कर पाने पर मतदाताओं में उपजे अविश्वास और घोषणापत्र के प्रति नफरत के नजरिए को विश्वास में बदलने की वजह भी हो सकती है। क्युकी विगत तीन दशक में विभिन्न पार्टियों द्वारा लाए गए घोषणापत्रों का यदि हम मूल्यांकन करें तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तरह प्रश्नपत्रों के शब्द भले ऊपर-नीचे बदल गए हो लेकिन सवाल आज भी वही है, मुद्दे वही है। नाम बदलने पर भले कुछ नया सा दिखे लेकिन काम की प्रवृति यदि वही रहे तो प्रक्रिया पर सवाल उठना लाज़मी है। किसान की खुशहाली, मजदूर की उन्नति, गरीबों का उत्थान, महिला सुरक्षा व सशक्तीकरण, शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, बिजली, पानी, यातायात, रोजगार, कारोबार, लघु कुटीर उद्योग, सिंचाई की व्यवस्था, नए बीज उन्नत किस्में, तकनीकी क्षेत्र में प्रगति, सीमा सुरक्षा, शांति व्यवस्था, युवाओं को नए अवसर, समानता समाजिक न्याय, गरीबी भुखमरी से छुटकारा, आवास योजनाएं, कर्ज माफी आदि सैकड़ों ऐसे मुद्दे है जिसको लेकर लगभग सभी सत्तासीन दलों ने अपने-अपने हिसाब से नीतियां बनाकर लागू की लेकिन पिछले 3 दशक में जनसंख्या और महंगाई ग्राफ की तुलना में बजट में बेहतासा बढ़ोतरी होने के बावजूद परिणाम के रूप में आज भी वही मुद्दे, चुनौतियां और समान समस्याएं समाने है। अब सवाल योजनाओं के क्रियान्वयन, राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्र और नेताओं की इच्छाशक्ति पर उठता है। आज भी सैकड़ों सांसद विभिन्न योजनाओं को लागू करने लिए दिए गए फंड तक को खर्च नहीं कर पा रहे। इसके पीछे की वजह विभिन्न क्षेत्रों में मुद्दे और समस्याएं अलग-अलग होने और पूरे देश के लिए एकमुश्त योजना बनने पर उसे लागू करने की उदासीनता भी हो सकती है जिसका एक उदाहरण कच्चे घर में पक्का शौचालय भी हैं। शौचालय होना जरूरी है लेकिन पक्का मकान भी उतना ही जरूरी है। घर में गैस कनेक्शन एक बार न भी हो तो चूल्हा जल सकता है लेकिन आटा, दाल, चावल, तेल के अभाव में गरीब के घर में कई बार चूल्हा नहीं जल पाता है। सांसदों को अपनी मर्जी से खर्च करने की निधि में कमी और योजनाओं के फंड को जरूरत के हिसाब से खर्च न करने की बाध्यता सांसदों और नौकरशाहों के फर्क को कम करती है, जो लोकशाही के जामे में कहीं न कहीं राजतंत्र के रूप में ही दिखाई देती है जिसमें पार्टी निर्णय और हाईकमान के आदेश का जनप्रतिनिधियों को पालन करना ही होता है। इस बीच भले आकर्षक योजनाएं, लोकलुभावन घोषणाएं राजनीतिक पार्टियों को एक बार मत हासिल करने में कामयाबी दिला दे लेकिन जन समस्याओं का अम्बार लगा होने पर जनप्रतिनिधियों द्वारा जनता की अंदेखी से उत्पन नाराजगी विरोधी दल के लिए सत्ता के दरवाजे खोल देती है। निसंदेह लोकतंत्र की यह खूबसूरती उस वक्त बदसूरत हो जाती है जब घोषणापत्र के छलावे में आकर मतदाता वोट तो दे देते है लेकिन अंत में वहीं ढाक के तीन पात हाथ लगते है। वादा खिलाफी, धोखे और हेराफेरी के लिए आम जनता पर धारा 420 के तहत कार्यवाही का प्रावधान है। लेकिन सुप्रीमकोर्ट और न ही चुनाव आयोग द्वारा राजनीतिक पार्टियों पर जुर्माना और कुछ समय के लिए चुनाव बैन जैसा कोई भी प्रावधान नहीं किया गया है, सब फैसला अभोर जनता के भरोसे छोड़ दिया गया है। जब दिल्ली से चलकर विभिन्न राज्यों के दूर दराज गावों तक योजनाओं के पहुंचने में 1/2 साल का वक्त लगे तो बात समझ में आती है लेकिन 5 साल तक वादों के पूरा होने की बाट नाराजगी में तब्दील होकर मतदाताओं को अपने निर्णय बदलने पर मजबूर कर देती है। और जब कहीं कोई विकल्प नहीं दिखाई देता तो नोटा का ग्राफ बढ़ने व मतदान के प्रतिशत में कमी आती है अर्थात शब्दों के मकड़जाल से भरे घोषणापत्र रूपी 5 साल के निविदापत्र को जनता अब नकारने लगी है। छलावे और हकीकत में फर्क जानने के लिए किसी भी सत्तासीन पार्टी के घोषणापत्र में शामिल वादों की पूर्ति, विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन को अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर हम निष्पक्ष रूप से क्रॉस चेक करें तो भले विगत सरकारों के समय और कार्यों की तुलना में फर्क मिल जाए लेकिन घोषणापत्रों की जगह छलावा ही ज्यादा नजर आता है। सभी सत्तारूढ़ दलों के जन घोषणापत्रों में शामिल बातें तो सही है, बशर्ते की वे वोट लक्ष्योन्मुखी और छलावे के रूप में न होकर विकासोन्मुखी बनकर देश के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचे !